भारतीय सनातन संस्कृति में परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं अर्थात वंश परंपरा में पिता का ही सर्वोपरि स्थान होता है। पिता का ही गौत्र, पुत्र को प्राप्त होता है और यही परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जाती है। सनातन संस्कृति में इसके पीछे कोई रूढि नहीं अपितु वैज्ञानिक कारण है, जो की पूर्ण रूप से अनुवांशिक सिद्धांत पर आधारित है। आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक स्त्री में X गुणसूत्र होते हैं, जबकि प्रत्येक पुरुष में XY गुणसूत्र होते हैं। मान लो किसी संतति में पुत्र पैदा होता है (XYगुणसूत्र) इसमें यह निश्चित तथ्य है कि Y गुणसूत्र पिता से प्राप्त हुआ है, क्योंकि माता के Y गुणसूत्र होता ही नहीं है और यदि पुत्री पैदा हुई है एक्स वाई गुणसूत्र तो (XXगुणसूत्र) माता और पिता दोनों से ही आते हैं। X गुणसूत्र का संयोजन अर्थात पुत्री। इस X के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है और इन दोनों गुणसूत्र के सहयोग से एक गांठ जैसी रचना बन जाती है जिसे क्रॉसओवर कहा जाता है। XY गुणसूत्र के संयोजन से पुत्र उत्पत्ति होती है। इस XY गुणसूत्र के जोड़े में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है, क्योंकि माता के Y गुणसूत्र होता ही नहीं है और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण क्रॉसओवर नहीं होता अपितु यह केवल 5% तक ही होता है और 95% Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (इंटैक्ट) ही रहता है। यहां Y गुणसूत्र अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम इसके विषय में निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह पिता से ही आया है। बस इसी गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का उद्देश्य है। जो हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि मुनियों ने जान लिया था और यही गोत्र प्रणाली भारतीय संस्कृति में परिवार के पितृसत्तात्मक होने का कारण है।
अब तक हम यह समझ चुके हैं कि वैदिक गोत्र प्रणाली गुणसूत्र पर आधारित है अथवा बाय Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल है, क्योंकि वह गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता। यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है। वैदिक हिंदू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है इसका मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष और स्त्री भाई बहिन कहलाए क्योंकि उनका पूर्वज एक ही है। परंतु यह थोड़ी अजीब बात नहीं की जिन स्त्री व पुरुष ने एक दूसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग-अलग देश में परंतु एक ही गोत्र में जन्मे तो वह भाई-बहन हो गए। इसका एक मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्र में समानता का भी है। आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि समान गुणसूत्र वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी संतति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी ऐसी दंपतियों की संतान में एक ही विचारधारा, पसंद और व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मक का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता और अपंगता गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था। इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित ना कर सके इसलिए विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गौत्र में उसे कन्या को स्थान देता है। यही कारण था कि विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि कुल गौत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है, इसलिए कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता था और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है।
आत्मज या आत्मजा का संधि विच्छेद तो कीजिए। आत्म+जया= जन्म या जन्मी यानी जो मैं ही जन्मा या जन्मी हूं। यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माताका सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जाएगा फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जाएगा इस तरह सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह घटकर एक प्रतिशत रह जाएगा। अर्थात एक पति—पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है और यही है सात जन्मों का साथ। लेकिन जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्र का 95% गुणों को आनुवंशिकी में ग्रहण करता है, और माता का 5% (जो की किन्हीं परिस्थितियों में एक प्रतिशत से भी कम हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है और यही क्रम अनवरत चलता रहता है। जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारंबार जन्म लेते रहते हैं अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है। इसलिए, अपने ही अंश को पितृ जन्मों जन्म तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं। और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है और संतानों की उन्नति के लिए समर्पित होने का संबल देती है। एक बात और माता-पिता यदि कन्यादान करते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं बल्कि इस दान का विधान इस निमित्त किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिए और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिए उसे गौत्र मुक्त होना चाहिए। डीएनए गौत्र मुक्त हो नहीं सकती, क्योंकि भौतिक शरीर में वह डीएनए रहेंगे ही इसलिए मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है। गौत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गौत्र और डीएनए को करप्ट नहीं करेगी, वर्णसंकर नहीं करेगी। क्योंकि कन्या विवाह बाद कुल वंश के लिए रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि हर विवाहित स्त्री माता समान पूजनीय हो जाती है। यह रजदान भी कन्यादान की तरह उत्तम दान है और पति को किया जाता है। यह सुचिता अन्य किसी सभ्यता में दृश्य नहीं है।