RGHA NEWS: प्रधानमंत्री की भावना को किया अनदेखा, डॉक्टरों से मिलकर सरकार निकाल रही है अरजीएचएस योजना की अंतिम यात्रा

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महेश झालानी

राजस्थान की स्वास्थ्य व्यवस्था इस समय एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ दवा नहीं, दाम बोल रहे हैं। सरकारी डॉक्टरों से लेकर निजी अस्पतालों तक, हर जगह इलाज से ज़्यादा मुनाफ़े की गंध आती है। राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी “राजस्थान सरकार स्वास्थ्य योजना” यानी आरजीएचएस का उद्देश्य था कर्मचारियों और पेंशनभोगियों को कैशलेस इलाज की सुविधा देना, लेकिन आज यह योजना खुद किसी बीमार शरीर की तरह भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़े और ब्रांडेड दवाओं की लूट से कराह रही है।

राज्य के चिकित्सक आज भी मरीजों को महँगी ब्रांडेड दवाएँ लिखने के आदी हैं । जबकि वही दवाएँ जेनरिक रूप में दस गुना सस्ती मिलती हैं। यह स्वास्थ्य सेवा नहीं, एक संगठित व्यावसायिक जाल है। पैरासिटामोल की एक जेनरिक टैबलेट पचास पैसे में आती है, लेकिन क्रोसिन नाम से वही दवा तीन रुपये पचास पैसे में बिकती है। एमोक्सिसिलिन एक रुपये बीस पैसे में बन जाती है, पर ऑगमेंटिन के नाम पर चौदह रुपये वसूले जाते हैं ।
एटोरवास्टेटिन, जो महज़ दो रुपये की जेनरिक दवा है, वही एटोरवा या लिपिकॉर जैसे नामों में बारह रुपये तक पहुँच जाती है। दवा वही, असर वही, बस नाम और कमीशन बदल जाता है। यह खेल इतना संगठित है कि इसमें डॉक्टरों, दवा कंपनियों और मेडिकल एजेंटों तक की हिस्सेदारी तय रहती है।

राज्य सरकार सालाना अरबों रुपये इस योजना पर खर्च करती है । लेकिन उसका बड़ा हिस्सा मरीज के इलाज पर नहीं, ब्रांडेड कंपनियों की जेब में जा रहा है। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस लूट पर रोक लगाए और स्पष्ट नीति बनाए । जो भी निजी चिकित्सालय या पैनल अस्पताल ब्रांडेड दवा का बिल प्रस्तुत करेगा उसे भुगतान देय नहीं होगा। यह नियम अगर ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो हर महीने करोड़ों रुपये की डाके जैसी बर्बादी रुक सकती है।

केंद्र की तर्ज पर शुरू की गई आरजीएचएस योजना का मूल उद्देश्य था कि राज्य कर्मचारी और पेंशनभोगी बिना आर्थिक बोझ के गुणवत्तापूर्ण इलाज पा सकें। जबकि हकीकत यह है कि अस्पतालों को महीनों तक भुगतान नहीं मिलता । फर्जी दावे और घोटाले इस योजना के पर्याय बन गए हैं। कुछ लाभार्थियों ने एक ही कार्ड से पच्चीस लाख रुपये तक का इलाज करा लिया।
कई डॉक्टरों और कर्मचारियों को निलंबित भी किया गया । लेकिन व्यवस्था की बीमारी अब भी बरकरार है। सरकार ने एआई आधारित क्वालिटी चेक सिस्टम लागू किया है । मगर तकनीक तब तक निष्प्रभावी है जब तक नीयत ईमानदार नहीं होती।

आरजीएचएस की एक और गंभीर कमी यह है कि इसमें प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, योग और नेचुरोपैथी जैसी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को जगह नहीं दी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार यह बात कहते रहे हैं कि भारत का असली स्वास्थ्य भविष्य आयुष पद्धति में छिपा है । सस्ता, सरल और सतत उपचार ।

राजस्थान जैसे विशाल राज्य में, जहाँ आधुनिक चिकित्सा केंद्र सीमित हैं, वहाँ प्राकृतिक चिकित्सा सबसे प्रभावी विकल्प बन सकती है। आज भी पंचकर्म, मर्म चिकित्सा या योग चिकित्सा के सत्र तीन-चार सौ रुपये में पूरे हो जाते हैं, जबकि वही रोग एलोपैथिक दवा या इंजेक्शन से तीन-चार हज़ार तक पहुँच जाता है। यदि सरकार इन प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों को आरजीएचएस के दायरे में शामिल कर ले तो न केवल खर्च घटेगा बल्कि राज्य की स्वास्थ्य नीति आत्मनिर्भर भी बनेगी।

राज्य सरकार को अब यह समझना होगा कि आरजीएचएस केवल एक योजना नहीं बल्कि उसकी नीयत का आईना है। यदि चिकित्सक अब भी दवा कंपनियों के दबाव में ब्रांडेड नाम लिखते रहेंगे तो जनता हमेशा लुटती रहेगी। जो अस्पताल ब्रांडेड बिल प्रस्तुत करें, उनका भुगतान तत्काल रोका जाए और चिकित्सकों को जेनरिक दवा लिखने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया जाए। यह कदम न सिर्फ सरकार को आर्थिक राहत देगा बल्कि जनता के प्रति उसकी विश्वसनीयता भी बहाल करेगा।

यह योजना तभी सफल हो सकती है जब इलाज का केंद्र अस्पताल नहीं, मरीज बने। जब डॉक्टर की पर्ची से “क्रोसिन” की जगह “पैरासिटामोल” निकले, जब अस्पताल बिल की जगह सेवा भावना को प्राथमिकता दें । साथ ही जब प्राकृतिक चिकित्सा को सस्ते, सुरक्षित विकल्प के रूप में अपनाया जाए। तभी कहा जा सकेगा कि आरजीएचएस सचमुच स्वास्थ्य सुरक्षा की योजना है । न कि भ्रष्टाचार और दवा कंपनियों के गठजोड़ का नया नाम।

राजस्थान सरकार के पास अब दो रास्ते हैं । या तो यह योजना फाइलों में दम तोड़ देगी अथवा यह एक नयी स्वास्थ्य क्रांति का शंखनाद बनेगी। अगर सरकार साहस दिखाकर ब्रांडेड बिलों का भुगतान रोक दे, जेनरिक दवा नीति लागू करे और प्राकृतिक चिकित्सा को योजना में शामिल कर ले तो न केवल करोड़ों की बचत होगी, बल्कि जनता का भरोसा भी लौट आएगा। क्योंकि जनता को दवा में नाम नहीं, असर चाहिए । सरकार को योजना में दिखावा नहीं, ईमानदारी चाहिए। जब नीयत साफ़ होगी, तभी यह व्यवस्था स्वस्थ कहलाएगी। ध्वस्त होती योजना को पुनः बहाल करना है तो डॉ समित शर्मा जैसे अफसर को इसकी कमान सौपनी होगी ।

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